ग़ज़ल..
इख़लास-ओ-मुरौवत की अदा ढूंड रहे हो.,
क्यूं संग में इन्सा की अदा ढूंड रहे हो,,
इस दौर के लोगों में मुहब्बत ना मिलेगी.,
पतझड़ में भी क्यूं बादे सबा ढूंड रहे हो,,
जो ज़ुल्म भी ढाकर नहीं करता कभी अफ़सोस.,
उस शोख के अंदर भी हया ढूंड रहे हो,,
इस दौर में इस शय का कोई दाम नहीं है.,
इस दौर में क्यूं मेहर-ओ-वफा ढूंड रहे हो,,
चेहरे पे अभी ग़म की है परच्छाई' हमारे.,
सूखे हुए होंटों पे दुआ ढूंड रहे हो,,
बाज़ आएगा हरगिज़ ना सितम से वो सितमगर.,
पत्थर में मुहब्बत की अदा ढूंड रहे हो,,
जिसजा करो महसूस वहीं पास मिलेगा.,
हर दर पे सिराज अपना खुदा ढूंड रहे हो...! |