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Asrar Ahmad Razi
 
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* लगाते आग क्यों हो तुम, शरारे बोल उठ *
लगाते आग क्यों हो तुम, शरारे बोल उठते हैं
न बोलो तुम मगर चेहरे तुम्हारे बोल उठते हैं
नहीं सरकार यह अच्छी इसे इक दम बदल डालो!
गिरानी के सताए लोग सारे बोल उठते हैं
कभी तो मुस्कराने का कोई मौक़ा मिले मुझको
मिरी मग़मूम शामों के नज़ारे बोल उठते हैं
ज़माने की बग़ावत से तो वह ख़ामोश रहते हैं
लबे साकित मगर अपनों से हारे बोल उठते हैं
न बांटो मेरे फरज़न्दो! मकां के ईंट गारे को
बड़े हस्सास हैं, हसरत के मारे बोल उठते हैं
यही दफ्तर का चक्कर रोज़ का मामुल उफ तौबा!
मुलाज़िम पेशा उकता कर बेचारे बोल उठते हैं
शहादत देते हैं जब अपने ख़ालिक़ और मालिक की
तो बादल, पेड़ पत्ते, चांद तारे बोल उठते हैं
चलो! अब फत्ह कर लो सारी दुनिया ही तुम्हारी है
खुदा वालों से बरजस्ता किनारे बोल उठते हैं
बज़ाहिर वह मिरा हामी है लेकिन बातों बातों में
किनाए, इस्तेआरे, और इशारे बोल उठते हैं
यह है दस्तूर राज़ी कोई मुश्किल वक्त आने पर
मुनाफिक़ रहते हैं चुप, दोस्त सारे बोल उठते हैं
 
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