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Asrar Ahmad Razi
 
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* मुझे सरहदों ने जो दि सदा, तो मैं शाद&# *
मुझे सरहदों ने जो दि सदा, तो मैं शादो सीना सपर गया
मुझे दुश्मनों की हो फिकर किया, मिरा खौफे बर्को शरर गया

मह व महर हैं तेरे मुन्तज़िर, नई मंज़िलों को तलाश फिर
न ख्याल भी जहां जा सके, वहां अहदे नो का बशर गया	

है यह असरे नौ की हमामी, यहां दमबदम रवां ज़िन्दगी
जो रूका यहां किसी मोड़ पर तो फिर अज़म इसका बिखर गया

कहां नुतके सेफो कलम है अब, तू खमोश मिशले सनम है अब
था बहुत ही साहेबे फहम तू, तो कहां वह ज़ौक नज़र गया

नहीं निगहे नुक्ता शनास वह, जो क़लम की नक़दे हयात थी
वह जो अहले फन का मिज़ाज था, वह शऊरे ऐबो हुनर गया

नहीं कोई अब मिरा हमनवा, मिरा हम नशीं कहीं खो गया
वह जो मेरा मोहरिमे राज़ था, वह हदे वफा से गुज़र गया

कहां रिश्ते नातों का पास है, यहां ज़र पे सारी असास है
वह जो मोह लेती थी इक नज़र, वह जहां से हुस्ने नज़र गया

न शजर की क़ता व बरिद कर, तू जहां की फिक्रे मज़ीद कर
कहीं दोस्त ऐसा न पाए गा, जो यह बरगे व बर का शजर गया

तिरी ज़िन्दगी तिही ज़ोक है, तिरी बन्दगी तिही शौक है
तू असीरे फिक्रे हयात है, तेरा सोज़ व साज़ जिगर गया

है प्यामे राज़ी बहुत हसीं, तेरा हर्फ हर्फ है दिल नशीं
मिरे हम नवा तिरा मद्दुआ, मेरे क़लबो जां में उतर गया —
 
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