ख़बर सच्ची नहीं लगती नए मौसम के आने की
मेरी बस्ती में चलती है हवा पिछले ज़माने की
मेरी हर शाख को मौसम दिलासे रोज़ देता है
मगर अब तक नहीं आई वो साअत गुल खिलाने की
सुना है और की ख़ातिर वो अब पलकें बिछाती हैं
जो राहें मुन्तज़िर रहती थीं मेरे आने जाने की
हमारे ज़ख्म ही ये कम अब अंजाम देते हैं
ज़रुरत ही नहीं पड़ती लबों को मुस्कुराने की
ज़माना चाहता है क्यों मेरी फ़ितरत बदल देना
इसे क्यों ज़िद है आख़िर फूल को पत्थर बनाने की
बुरी अब हो गई दुनिया शिकायत सब को है लेकिन
कोई कोशिश नहीं करता इसे बेहतर बनाने की
हमारे कैन्वस पर यूँ स्याही फिर गई आलम
कि अब जुर्रत नहीं होती नया मंज़र बनाने की
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غزل
٭……عالمؔ خورشید
خبر سچی نہیں لگتی نئے موسم کے آنے کی
مری بستی میں چلتی ہے ہوا پچھلے زمانے کی
مری ہر شاخ کو موسم دلا سے روز دیتا ہے
مگر اب تک نہیں آئی وہ ساعت گل کھلانے کی
ہمارے زخم ہی یہ کام اب انجام دیتے ہیں
ضرورت ہی نہیں پڑتی لبوں کو مسکرا نے کی
سنا ہے اور کی خاطر وہ اب پلکیں بچھاتی ہیں
جوراہیں منتظر رہتی تھیں میرے آنے جانے کی
زمانہ چاہتا ہے کیوں مری فطرت بدل دینا
اسے کیوں ضد ہے آخر پھول کو پتھر بنانے کی
بری اب ہو گئی دنیا شکایت سب کو ہے لیکن
کوئی کوشش نہیں کرتا اسے بہتر بنانے کی
ہمارے کینوس پر یوں سیاہی پھر گئی عالمؔ
کہ اب جرأت نہیں ہوتی نیا منظر بنانے کی
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