ग़ ज़ ल
( आलम खुरशीद )
ये बात वक्त से पहले कहाँ समझते हैं
हम इक सराय को अपना मकाँ समझते हैं
यकीं किसी को नहीं अपनी बे-सबाती का
सब अपने आप को शाहे-ज़मां समझते हैं
बस इक उड़ान भरी है अभी खलाओं में
इसी को अहले-ज़मीं आसमां समझते हैं
ये कारज़ारे -अमल है जो लोग वाकिफ़ हैं
वो ज़िन्दगी को फ़क़त इम्तहां समझते हैं
हमें भी खींचती है इसकी हर कशिश लेकिन
ये खाकदाँ है इसी खाकदाँ समझते हैं
ये लोग इतने फ़सुर्दा इसी लिए हैं क्या
कि दूसरों को बहुत शादमाँ समझते हैं
खुदा ! उन्हें भी हो तौफ़ीक़ इस इबादत की
मुहब्बतों को जो कारे- ज़ियाँ समझते हैं !!!
_______________
बे-सबाती = अस्थायित्व
शाहे-जमां = बादशाहे-वक्त
कशिश = आकर्षण
खाकदाँ = संसार + कूड़ा -दान
फ़सुर्दा = उदास
शादमां = खुश
कारे - ज़ियाँ = बेकार का काम, नुकसान का काम