ग़ ज़ ल
मानूस कुछ ज़रूर है इस जलतरंग में
इक लहर झूमती है मेरे अंग -अंग में
ख़ामोश बह रहा था ये दरिया अभी अभी
देखा मुझे तो आ गईं मौजें तरंग में
लगता था आसमान भी छोटा बहुत मुझे
पर ज़िन्दगी तमाम हुई शहरे-तंग में
शीशा-मिज़ाज मैं हूँ मगर ये भी खूब है
अपना सुराग़ ढूँढता रहता हूँ संग में
अब क्या मेरा है फ़र्ज़ इसी कशमकश में हूँ
मर्ज़ी नहीं है फिर भी मैं शामिल हूँ जंग में
क्या फ़र्क है ये अहले-नज़र ही बताएंगे
कुछ फ़र्क तो ज़रूर है फूलों के रंग में
इक दुसरे से टूट के मिलते तो हैं मगर
मसरूफ़ सारे लोग हैं इक सर्द जंग में
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मानूस = जाना-पहचाना