* हरेक चीज़ बदलती है इस ज़माने में *
हरेक चीज़ बदलती है इस ज़माने में
मगर ग़ज़ल के कवाईद ही दाईमी क्यूँ हैं
हरेक लफ्ज़ में काई जमी कदामत की
हरेक शेर में सदियों की तीरगी क्यूँ है
फने ग़ज़ल के वो मालिक है इसके आका हैं
हरेक बज़्म है उनकी ही सिर्फ दरबारी
उन्होंने ठहरा सा तालाब कर दिया इसको
कोई बतादे ग़ज़ल है फ़क़त जू ए जारी
हैं सुबहो शाम ये गुम गैब के ख़यालों में
हक़ीक़तों से हुई शायरी जुदा यारो
कभी ये तेज़ खिरद की हसीं अलामत थी
और आज लगती है कछुओं का काफिला यारो
अरूजो वज्न में खोये पड़े हैं ये शायर
पटी हैं सड़कें जहाँ बेगुनाह लाशों से
मुशाइरे है कि मैदान हैं तसादुम के
हैं तंग सामईन बेकार इन तमाशों से
अरूजो वज्न ही हैं हासिले सुखन जिनके
कभी न अपनी क़दामत की नींद से जागे
गमे जहान की चादर की वुस 'अतें देखें
रिवायतों की रुमालों के तंग से धागे
कोई तो उठ के कभी बोले अपनी हिम्मत से
कि मजहबों ने तमद्दुन को भून डाला है
ये धर्म जिसको बनाया कभी था इन्सां ने
उसी ने उसमे ये नफरत का खून डाला है
कोई तो जाके कहे पुर अना सुखनवर से
जुबां के इल्म से ही शायरी नहीं होती
खिरद का नूर ही देता है ताब ग़ज़लों को
बुझे दियों से कभी रौशनी नहीं होती
ये तीरगी के हैं शैतान ,कोरबातिन हैं
क़दीम फ़लसफ़े तलवार बन गए इनके
इन्होने उर्दू को जैसे कनीज़ समझा है
ये मुशाइरे भी तो बाज़ार बन गए इनके
मैं इक हकीर सा शायर हूँ फिर भी कहता हूँ
हरेक अरूज़ से बढ़कर है दर्द इन्सां के
फ़क़त शराब पे ,साकी पे शेर कहना तो
मेरी नज़र में तमाशे हैं ज़हने उरयां के
सुखन का फ़र्ज़ कसीदा ए कज कुलाह नहीं
सुखन का फ़र्ज़ तो इन्सान की हिमायत है
वो शेर जिसमे न दर्दे जहाँ की खुशबू हो
मेरी नज़र में तो उस शायरी पे लानत है
हैं इक तरफ ये रिवायत के कुहना क़स्र तेरे
और इक तरफ मेरी इंसानियत के आंसू हैं
सड़क पे बिखरा हुआ खून कि अरूज़ तेरे
बता दे आज तो शायर कि किस तरफ तू है
बता दे आज तो शायर कि किस तरफ तू है
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