* साहिर के लिए ..उनके जन्मदिन ८ मार्च *
साहिर के लिए ..उनके जन्मदिन ८ मार्च पर
जहाँ जहाँ भी ग़मो दर्द होंगे इंसानी
वहां वहां तुम्हे नगमा ,मिलेगा साहिर का
हमेशा साथ ये देगा हुकूके इन्सां का
कभी ये साथ न देगा किसी भी जाबिर का
कभी मिलेगा तुम्हे नर्म से गज़ालों सा
कभी दहाड़ते इक शेर सा लगेगा तुम्हे
ख़याल उसके हमेशा थे शाहराहों से
कभी न तंग सी गलियों सा वो लगेगा तुम्हे
न हिन्दू वो न मुसलमां न इक ईसाई था
वो इस जहाँ में अखुव्वत का ही पुजारी था
मेरी नज़र में तो उसका ये सादालोह धरम
जहाँ के बाक़ी सभी मजहबों पे भारी था
"मज़ामीं" उसके कभी "ग़ैब" से नहीं आये
उसे तो तल्ख़ "हवादिस" ने पुख्तगी दी थी
ग़ज़ल नहीं थी 'नवा ए सरोश ' उसके लिए
उसे तो दर्दे बशर ने ही शायरी दी थी
नहीं थी औरतें इक जिस्म के सिवा कुछ भी
हके निसाई की बातें भी ख्वाब जैसी थी
जिसे पिया भी पिलाया भी और बहा डाला
सभी की नज़रों में औरत शराब जैसी थी
उठाया उसने कलम और तब भी दुनिया में
हके निसाई के सरकश तराने गाये थे
हरेक लफ्ज़ में एलान था बगावत का
हरेक शेर में औरत के दर्द छाये थे
उसी ने ताज को देखा नए नज़रिए से
कहा ये प्यार नहीं ,है तमाशा दौलत का
वो जिनके खून पसीने ने शाहकार गढ़ा
नहीं है उनसे बड़ा ये दिखावा ताक़त का
मैं जो भी सोचूं ,वो पहले से सोच लेता था
हरेक शेर कि अहसास का समंदर था
हरेक लफ्ज़ भी इतना अज़ीम था उसका
मेरी नज़र में तो वो शायरी का अकबर था
सभी को बाँट के खुशबू वो चल दिया तनहा
अकेले जी के अकेला ही मर गया यारो
ज़माने भर ने सुना 'तार ' ने जो धुन छेडी
जो गुजरी 'साज़' पे उसका किसे पता यारो *
*..साहिर ने कहा था ..जो तार से निकली है वो धुन सबने सुनी है
जो साज़ पे गुजरी है वो किस दिल को पता है ..ये बंद उसी की जानिब इशारा कर रहा है
जाबिर ..अत्याचारी
मज़ामीं ..विषय वस्तु
अखुव्वत ..समानता
दर्दे बशर ..इंसानी दर्द
गैब ..शुन्य .ईश्वरीय उदगम..ग़ालिब ने कहा था
" आते हैं गैब से ये मज़ामीं ख़याल में
ग़ालिब सरीरे खामा नवाए सरोश है '..
या ..ये शायरी के विषय ईश्वरीय उदगम से आते हैं
.पेन के चलने की आवाज़ जीब्रील फ़रिश्ते की आवाज़ है ."
साहिर ने इसका उल्टा कहा
" दुनिया ने तजरिबातो हवादिस की शक्ल में
जो कुछ मुझे दिया है वो लौटा रहा हूँ मैं
हके निसाई ..औरतों का अधिकार
URDU
ساحر کے لئے --ایک نظم ...سحاب
جہاں جہاں بھی غمو درد ہونگے انسانی
وہاں وہاں تمہیں نغمہ ملیگا ساحر کا
ہمیشہ ساتھ یہ دیگا حقوق ا انس کا
کبھی یہ ساتھ نہ دیگا کسی بھی جابر کا
کبھی ملیگا تمہیں نرم سے غزالوں سا
کبھی دہاڈتے اک شیر سا ملیگا تمہیں
خیال اس کے ہمیشہ تھے شاہراہوں سے
کبھی نہ تنگ سی گلیوں سا وو لگےگا تمہیں
نہ ہندو وو نہ مسلماں نہ اک عیسائی تھا
وو اس جہاں میں اخوت کا ہی پجاری تھا
میری نظر میں تو اس کا یہ سادہ لوح دھرم
جہاں کے باقی سبھی مذہبوں پی بھری تھا
مضامیںاس کے کبھی غیب سے نہیں آے
اسے تو تلخ حوادث نے پختگی دی تھی
غزل نہیں تھی' نوا ا سروش' اس کے لئے
اسے تو درد ا بشر نے شاعری دی تھی
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