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Akhtar ul Iman
 
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* शाम होती है सहर होती है ये वक़्त-ए-र&# *
शाम होती है सहर होती है ये वक़्त-ए-रवाँ
जो कभी मेरे सर पे संग-गराँ बन के गिरा 
राह में आया कभी मेरी हिमाला बन कर 
जो कभी उक्दा[4] बना ऐसा कि हल ही न हुआ 
अश्क बन कर मेरी आँखों से कभी टपका है 
जो कभी ख़ून-ए-जिगर बन के मिज़श्गाँ पर आया 
आज बेवास्ता यूँ गुज़रा चला जाता है 
जैसे मैं कश्मकश-ए-ज़ीस्त में शामिल ही नहीं 
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