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Anamika
 
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* मैं एक दरवाज़ा थी *
मैं एक दरवाज़ा थी 
मुझे जितना पीटा गया 
मैं उतना ही खुलती गई। 
अंदर आए आने वाले तो देखा– 
चल रहा है एक वृहत्चक्र– 
चक्की रुकती है तो चरखा चलता है 
चरखा रुकता है तो चलती है कैंची-सुई 
गरज यह कि चलता ही रहता है 
अनवरत कुछ-कुछ ! 
... और अन्त में सब पर चल जाती है झाड़ू 
तारे बुहारती हुई 
बुहारती हुई पहाड़, वृक्ष, पत्थर– 
सृष्टि के सब टूटे-बिखरे कतरे जो 
एक टोकरी में जमा करती जाती है 
मन की दुछत्ती पर।
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