* बीस किलोमीटर दूर गांव से *
बीस किलोमीटर दूर गांव से
आता हे चमरू
उतरती है चैन साईकिल की
इस बीच कई बार
फुलपैंट का पांयचा
फंस कर चैन में
हो चुका चीथड़ा
चमरू की त्वचा की तरह
दूसरी पेंट भी तो
नहीं पास उसके!
बीस किलोमीटर दूर गांव से
आता है चमरू
मुंह अंधेरे छोड़ता घर-परिवार
रांधती है बीवी अलस्सुबह भात
अमरू की तीखी-खट्टी चटनी
या कभी खोंटनी साग
पोलीथीन में बांध कर खाना
भगाता साईकिल तेज़-तेज़ चमरू
प्रधानमंत्री ग्रामीण सड़क तक पहुंचने में
नाकने पड़ते नाले तीन
इन नालों के कारण
बारिश में करना पड़ता ड्यूटी नागा उसे
चमरू नहीं जानता
कि राजधानी में मेट्रो का बिछाया जा रहा जाल
कि चार दिन के खेल के लिए
फूंके जाते हैं हज़ारों करोड़ रूपए
ऐसे समय में जब अनाज भंडारन के लिए
नहीं है अभी भी गोदाम देश में…
बीस किलोमीटर दूर गांव से
आता है चमरू
जब खदान के मुहाड़े
मुंशी महराज हड़काता है
-‘‘आज फिर लेट आया बे चमरू!’’
पतली दुबली काया में
सांस के उतार-चढ़ाव को सहेजे
दांत निकाल देता सफाई चमरू-
‘‘का करूं महराज…. अब से गल्ती न होई!
भले से शाम देर तक ले लेना काम
लउटईहा मत महराज!’’
चमरू खदान में
करता हर तरह के काम
जानता खदान का चप्पा-चप्पा
मधुमक्खी के छत्ते की तरह तो
सुरंगें हैं कोयला खदान की
या कहें अंतड़ियों के जाल सी हैं सुरंगें खदान की
अपने संग मजूरों की जुट्टी बना
दौड़ता-निपटाता सारे काम चमरू
इसीलिए महराज मुंशी उसे
ज्यादा नहीं धमका पाता है…..
चमरू खदान का
सबसे पुराना ठीकेदारी-मजूर है
महराज मुंशी जानता है
यदि चमरू रूठा
तो लपक लेगा दूसरा ठीकेदार उसे
इसलिए प्यार से गरियाकर
लगा देता उसे ड्यूटी पर….
थोड़ी देर बाद चमरू
हेलमेट में केप-लैम्प बांधे
मजूरों की जुट्टी संग उतरता
कोयला खदान के अंतहीन गलियारों में
महराज मुंशी मजूरों को उतार
देता मोबाईल पर ठीकेदार को रिपोर्ट
और भाग जाता महराजिन के पास!
बीस किलोमीटर दूर गांव से
आता है चमरू काम पर
इसी तरह आते हैं
सैकड़ों चमरू कोयला खदानों में
अपनी-अपनी साईकिलों पर होके सवार
इस तरह
कि न जी पाते हैं क़ायदे से
और न मर ही पाते हैं सलीके से!
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