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Asim Khan Aafridi
 
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* मेआर बेचकर कभी दस्तार बेचकर *
मेआर बेचकर कभी दस्तार बेचकर
हम बवाक़ार हो गए किरदार बेचकर

आँगन के साए और घने अशजार बेचकर
हम आ गए हैं गाँव से घरबार बेचकर

इक दिन खरीद लायेंगे सूरज हम अम्न का
दुनिया में नफ़रतों का हर अम्बार बेचकर

ले-दे के बस ये एक ही सरमाया है मेरा
जाऊं कहाँ मैं अपना ये किरदार बेचकर

शायद इसी मलाल में सूरज निढाल है
साया चला गया कहीं दीवार बेचकर

ज़ुल्मत के सारे ज़िक्र ही छोटे लगे मुझे
जब आ गया मसीहा ही बीमार बेचकर

खाबीदा बस्तियों से तू बहार निकल के आ
मिस्मार हो रहे दर-ओ-दीवार बेचकर

माजी के ज़ख्म भरने की तसदीक़ हो गयी
आया हूँ तेरी याद के गुलज़ार बेचकर

"आसिम" गुलामियाँ हैं फ़क़त उनके वास्ते
बैठे हैं जो भी जुर्रत-ए-इज़हार बेचकर
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