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Brijesh Neeraj
 
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* रेत की मानिंद फिसलता चला गया *

वक्त

रेत की मानिंद फिसलता चला गया
रोकना चाहा, वक्त गुजरता चला गया।

रंजिशें कम हों कोशिश बहुत की
एक शोला था दहकता चला गया।

अश्कों ने लिखीं दर्द की कहानियां
बच्चा था भूख में पलता चला गया।

मौसम की तरह बदलता है मिजाज
दोस्त था अदावत करता चला गया।

मसीहा आएगा लोगों को था ऐतबार
न आया इंतज़ार बढ़ता चला गया।

जब थी ज़मीं को बारिश की जरूरत
हवाओं का रूख बदलता चला गया।

इन रास्तों पर सांस लेना भी मुहाल
आदमी माहौल में ढलता चला गया।

- बृजेश नीरज

 
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