सफर
यूं ही दरो-दीवार में कैद ये उम्र गुजरी
खुली आबो-हवा में चलो सफर करते हैं
रात भर जगने से बोझल हो गयीं आंखें
लेकिन नींद और ख्वाबों की बात करते हैं
पेट की खातिर शरारों पर चलता आदमी
लोग उसके करतब की तारीफ करते हैं
जो उम्मीद थी वो अब खत्म होने लगी
जाने क्यूं फिर भी हम इंतजार करते हैं
जबानें सिल रखी हैं जिन्होंने जमाने से
खाली होते ही सियासत की बात करते हैं
दिन भर घूमते थे जो खुद खुदा बनकर
रात में दरगाहों पर वो सज़दा करते हैं
इन शिकवो-शिकायत से क्या हासिल
जो फासले हैं उनको कुछ कम करते हैं
जख्म हैं परों पर इरादे तो नहीं जख्मी
उड़ने की कुछ कोशिश चलिए करते हैं
- बृजेश नीरज