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Ismat Zaidi
 
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* दुआ जो मेरी बेअसर हो गई *
दुआ जो मेरी बेअसर हो गई 
फिर इक आरज़ू दर बदर हो गई

वफ़ा हम ने तुझ से निभाई मगर 
निगह में तेरी बेसमर हो गई 

तलाश ए सुकूँ में भटकते रहे 
हयात अपनी यूंही बसर हो गई

कड़ी धूप की सख़्तियाँ झेल कर 
थी ममता जो मिस्ले शजर हो गई 

न जाने कि लोरी बनी कब ग़ज़ल 
"ज़रा आँख झपकी सहर हो गई"

वो लम्बी मसाफ़त की मंज़िल मेरी
तेरा साथ था ,मुख़्तसर हो गई

मैं जब भी उठा ले के परचम कोई
तो काँटों भरी रहगुज़र हो गई

’शेफ़ा’ तेरा लहजा ही कमज़ोर था 
तेरी बात गर्द ए सफ़र हो गई
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