* लोग बहबूदी ए मिल्लत का लबादा ओढ़े *
लोग बहबूदी ए मिल्लत का लबादा ओढ़े
और चेहरों पे सजाए हुए मासूम से रंग
कितने मजलूमों की इज्ज़त को कुचल देते हैं
कितने मासूमों के अरमान मसल देते हैं
ख़ूबसूरत गुल ओ गुलज़ार की रौनक़ ले कर
बख्शते हैं उन्हें पुर खौफ़ सा इक सन्नाटा
ऐसे अशखास जो ईमान का सौदा कर के
अपने हस्सास ज़मीरों को कुचल देते हैं
शर पसंदों की जमा'अत के ये शातिर मुहरे
बेकस ओ बे बस ओ मजलूम से इंसानों को
अपनी चालों के शिकंजों में फंसा लेते हैं
और फिर अपनी नई क़ौम बनाने के लिए
बर्बरीयत का हर इक खेल सिखा देते हैं
नाम पर मज़हब ओ मिल्लत के ये खूंरेज़ी क्यों ?
नाम इस्लाम का लेते हो तो बदकारी क्यों ?
ये वो मज़हब है जो इन्सान को इन्सान बनाए
ये वो मज़हब जो अखूवत का ही एहसास कराए
नाम ले कर इसी मज़हब का चले आते हो
औरतों , बच्चों पे भी रहम नहीं खाते हो
बेगुनाहों के लहू से जो नहा लेते हो
क्या समझते हो की फिरदौस में घर लेते हो ?
इन यतीमों की सुए अर्श अगर आह गयी
बस समझ लेना की फिर दीन भी ,, दुनिया भी गयी
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