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Jan Nisar Akhtar
 
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* ऐ दर्द-ए-इश्क़ तुझसे मुकरने लगा हू *
ऐ दर्द-ए-इश्क़ तुझसे मुकरने लगा हूँ मैं
मुझको सँभाल हद से गुज़रने लगा हूँ मैं

पहले हक़ीक़तों ही से मतलब था, और अब
एक-आध बात फ़र्ज़ भी करने लगा हूँ मैं

हर आन टूटते ये अक़ीदों के सिलसिले
लगता है जैसे आज बिखरने लगा हूँ मैं

ऐ चश्म-ए-यार ! मेरा सुधरना मुहाल था
तेरा कमाल है कि सुधरने लगा हूँ मैं

ये मेहर-ओ-माह, अर्ज़-ओ-समा मुझमें खो गये
इक कायनात बन के उभरने लगा हूँ मैं

इतनों का प्यार मुझसे सँभाला न जायेगा !
लोगो ! तुम्हारे प्यार से डरने लगा हूँ मैं

दिल्ली ! कहाँ गयीं तिरे कूचों की रौनक़ें
गलियों से सर झुका के गुज़रने लगा हूँ मैं 
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