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Jan Nisar Akhtar
 
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* आज तक चोट दबाये नहीं दबती दिल की *
सुबह के दर्द को रातों की जलन को भूलें 
किसके घर जायेँ कि उस वादा-शिकन को भूलें 

आज तक चोट दबाये नहीं दबती दिल की 
किस तरह उस सनम-ए-संगबदन को भूलें 

अब सिवा इसके मदावा-ए-ग़म-ए-दिल क्या है 
इतनी पी जायेँ कि हर रंज-ओ-मेहन को भूलें 

और तहज़ीब-ए-गम-ए-इश्क़ निबाह दे कुछ दिन 
आख़िरी वक़्त में क्या अपने चलन को भूलें
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