donateplease
newsletter
newsletter
rishta online logo
rosemine
Bazme Adab
Google   Site  
Bookmark and Share 
design_poetry
Share on Facebook
 
Jawaid Hayat
 
Share to Aalmi Urdu Ghar
* जब भी मैं हौश में आने का भरम रखता हू&# *
ग़ज़ल

जब भी मैं हौश में आने का भरम रखता हूँ
ज़हन में एक सितमगर का सनम रखता हूँ
गर सहर रात के चुन्गल से गुज़र आती है
शाम तक हिज्र के सब दिल में अलम रखता हूँ
जब सफ़र मेरे ख़यालों का शुरू होता है
अपनी मन्ज़िल पे सदा तेरा हरम रखता हूँ
मैं भी जलता हूँ जो ज़ुल्मत की हवा चलती है
फ़िक्र ख़िलक़त की सर-ए-चश्मे-अलम रखता हूँ
ज़िन्दगी देख मेरी रूह की गहराई में
मैं तेरे दर्द उठाने का भी दम रखता हूँ
क्या हुआ है यह ज़मीं इतनी गुनहगार है क्यों
ख़ार मिलते हैं जिधर भी मैं क़दम रखता हूँ
तेरा मक़तल भी है मशहूर मेरे नाम से ही
मैं जो सर अपना तेरी तेग़ पे ख़म रखता हूँ
इक नया तर्ज़ मुहब्बत का अयाँ होता है
जब कभी वरक़े-वफ़ा पर मैं क़लम रखता हूँ 
कोई पूछे मेरी पहचान तो बतलाऐं हया॔त
दिल का मासूम हूँ नज़रों में करम रखता हूँ 
जावेद हया॔त
 
Comments


Login

You are Visitor Number : 358