* रोज़-ए-महशर की हक़ीक़त से ख़बरदार *
ग़ज़ल
रोज़-ए-महशर की हक़ीक़त से ख़बरदार नहीं
उगते सूरज को भी जो देखकर बेदार नहीं
आज मैयख़ाना हरम और है साक़ी भी इमाम
दर्मियाँ ज़ाहिद-ओ-मैयकश कोई दीवार नहीं
दर्स ज़ाहिद किसी मैयकश को न दे नेकी का
यह हैं बेख़ुद कोई इन में से गुनहगार नहीं
ज़िन्दगी ओर सितम करके परख ले चाहे
दिल तेरे ग़म से अभी तक मेरा बेज़ार नहीं
आशना संग-तराशी से नज़र है मेरी
के सनम तुझ को बनाना मुझे दुशवार नहीं
लड़खड़ाते हैं क़दम राहे-वफ़ा में उनके
यह बहाना के ज़मीं राह में हमवार नहीं
आसमाँ ग़म का तेरे आज यूँ टूटा मुझपर
जैसे सर पर मेरे दुनिया का कोई बार नहीं
दोस्ती का वह क़हत है के हया॔त आज यहाँ
दर्दे-पिन्हाँ के सिवा कोई मेरा यार नहीं
जावेद हया॔त
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