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* चली जो बाद ए नसीम हमने, किया शुरू अप *
चली जो बाद ए नसीम हमने, किया शुरू अपना काम साहिब !
निकल पड़े मैयकदे की जानिब, लिऐ हुए ख़ाली जाम साहिब !!
यहाँ पे ज़ाहिद ओ रिन्द सब का, फ़क़त है साक़ी इमाम साहिब !
यही है दस्तूर मैयकदे का, यही यहाँ का निज़ाम साहिब !!
कभी सनम का ग़ज़ल में अपनी, लिखा नहीं हम ने नाम साहिब !
ज़माना उसको करे न रुसवा, हमारा पढ़के कलाम साहिब !!
अजब तरह से लबों पे उसने, अना की बन्दिश लगा रखी है !
कभी तो लेकर पुकार लेता, हमारा होटों पे नाम साहिब !!
हसद के बाज़ार में रफ़ीक़ों, ने ख़ूब उछाली है मेरी दस्तार !
लगा सका न कोई भी बोली, न दे सका कोई दाम साहिब !!
मैं बंद रखता हूँ कान अपने, झुका के रखता हूँ नज़र भी अपनी !
इसी लिये तो हैं मेरे मददाह, शहर के सब ख़ास ओ आम साहिब !!
ग़म ए फ़िराक़ ए सनम जो शब भर, लगे थे दिल को उजाढ़ने में !
ख़ुमार ए बाद ए समूम ए सुबह , उतार देगा तमाम साहिब !!
हयात॔ दश्त ए जुनूँ में आठों, पैहर भटकता है आज क्यों कर !
जो दिन के ख़न्जर से बच गया भी, तो धर ही लेगी ये शाम साहिब !!
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