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Kaifi Azmi
 
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* खारो-ख़स तो उठें, रास्ता तो चले । *
खारो-ख़स तो उठें, रास्ता तो चले ।
मैं अगर थक गया, काफ़िला तो चले ।

चाँद-सूरज बुजुर्गों के नक़्शे-क़दम
ख़ैर बुझने दो इनको, हवा तो चले ।

हाकिमे-शहर, ये भी कोई शहर है
मस्जिदें बंद हैं, मयकदा तो चले ।

इसको मज़हब कहो या सियासत कहो
ख़ुदकुशी का हुनर तुम सिखा तो चले ।

इतनी लाशें मैं कैसे उठा पाऊँगा
आज ईंटों की हुरमत बचा तो चले ।

बेलचे लाओ, खोलो ज़मीं की तहें
मैं कहाँ दफ़्न हूँ, कुछ पता तो चले ।
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