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Kazim Jarwali
 
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* पता नहीं है उजालो को वुसअते शब् का, *
पता नहीं है उजालो को वुसअते शब् का,
तहे चिराग भी क़ब्ज़ा है ज़ुल्मते शब् का ।

गुलो मे सर को छुपाये सिसक रही है हवा,
सहर के हाथ मे दमन है रुखसते शब् का ।

ये कहकशां है ग़ुबारे सफ़र का आईना ,
ये चाँद नक्श-ऐ-कफे पा है हिजरते शब् का ।

बता रहें हैं किसी के खुले हुए घेंसू ,
हवा की ज़द पे खज़ाना है नकहते शब् का ।

ठहर के ओंस की बूंदे शजर के पत्तो पर ,
इलाज ढूँढ रही हैं हरारते शब् का ।

थका थका सा उजाला डरी डरी आँखें ,
बहुत अजीब है मंज़र तिलावते शब् का ।

वो एक अश्क जो “काज़िम” है ता सहर बाक़ी,
वही चराग़ मुजाविर है तुर्बते शब् का ।।
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