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Masood Jafri
 
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* कर्ब और इज़तेराब कियूं झेलूँ *
कर्ब और इज़तेराब कियूं झेलूँ
ग़म का बेदर्द बाब कियूं झेलूँ 
 
मुझ को जोशे जुनू ही काफी है 
आगाही के अज़ाब कियूं झेलूँ 
 
लोग बैठे हैं थक के साए में 
मैं ही बस आफताब कियूं झेलूँ 
 
जिन की ताबीर तक न मिल पाए
उम्र भर ऐसे ख्वाब कियूं झेलूँ 
 
आबला पाई ने कहा मुझ से 
रेत का यह सराब कियूं झेलूँ 
 
चांदनी से बदन जलाता है 
संग दिल माहताब कियूं झेलूँ 
 
मैं बग़ावत करूगा फिर इक बार 
झूठा यह इन्केलाब कियूं झेलूँ 
 
बूँद बारिश की जो न दे मसऊद
ऐसा कोई सहाब कियूं झेलूँ 
 
बूँद बारिश की जो न दे मसऊद
ऐसा कोई सहाब कियूं झेलूँ
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