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Masood Jafri
 
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* ना शाद को कुछ और भी ना शाद करे है क्य& *
ना शाद को कुछ और भी ना शाद करे है क्या तुर्फः तमाशा सितम इजाद करे है
 
है इस ही वफाओं की यह मेराज कि अब तो शिकवा न गिलः यह दिले बर्बाद करे है
 
मालूम नहीं ख़त्म करे कब वोह सफ़र यह कब जिस्म मिरा रूह को आज़ाद करे है
 
दिन मैं ने गुज़ारे तेरे कूचे में जो अक्सर दिल मेरा वोह लम्हा वोही पल याद करे है
 
माशूक कि बस होती है शायद यही फितरत उश्शाक़ प् हर हाल में बे दाद करे है
 
कर देता है बर्बाद खुदा लम्हों में सब कुछ तामीरे इरम जब कोई शद्दाद करे है
 
तकलीफ बहुत होती है गुलशन में गुलों को बुलबुल को कभी क़ैद जो सैय्याद करे है
 
उस्ताद कि ताज़ीम बा हरहाल है लाज़िम कियूं कि वोह हमें साहिबे इस्नाद करे है
 
बरहम हैं बहुत देख के यह हजरते वाइज़ मसऊद खराबे को ही आबाद करे है
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