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Mehr Lal Soni Zia Fatehabadi
 
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* मैं अपने आप से हूँ महव ए गुफ़्तगू अ *
मैं अपने आप से हूँ महव ए गुफ़्तगू अब तक 
मेरा ही चेहरा है बस मेरे रूबरू अब तक 

न हाथ जामादरी से उठाए वहशत ने 
न अपना चाक ए गरेबान हुआ रफ़ू अब तक 

जमूद ए कुह्नगी ए ख़ुमकदा, अरे तोबा !
वही है रिन्द, वही मय, वही सुबू अब तक 

हुआ ज़माना कि दम भर को बरक़ चमकी थी 
कलीम ओ तूर की बाक़ी है गुफ़्तगू अब तक 

हुनूज़ मेरे तआक्क़ुब में है ग़म ए दुनिया 
हुई है ख़त्म कहाँ मेरी जुस्तजू अब तक 

हुजूम ए यास ने कोशिश तो की , मगर न छुटा
खिज़ां के हाथ से दामान ए आरज़ू अब तक 

ये किस बगूले के चक्कर में है दिल ए नादाँ 
ख़राब ए दस्त बा उन्वान ए जुस्तजू अब तक 

जफ़ा ओ ज़ुल्म का अब अपने जायज़ा कर ले 
न पूछ मुझ से , वफ़ा क्यूँ है मेरी ख़ू अब तक 

हज़ारों साल से धड़कन हूँ तेरे दिल की मगर 
समझ रहा है मुझे अजनबी ही तू अब तक 

बदल चुका है ज़माना मगर “ज़िया” साहिब 
न बदला आपका अंदाज़ ए गुफ़्तगू अब तक
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