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Mehr Lal Soni Zia Fatehabadi
 
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* ग़म ए अन्जाम ए शादमानी से । *
ग़म ए अन्जाम ए शादमानी से । 
दिल हिरासाँ है कामरानी से । 

निकहत ओ रंग ए गुल से क्या निसबत
मेरे ग़म से तेरी जवानी से ।

कारोबार ए हवस चला क्या क्या 
जिन्स ए इखलास की गिरानी से । 

हुआ हमवार जादा ए मंज़िल
पा ए हिम्मत की सख्तजानी से । 

सोज़ भी अश्क ए ग़म में शामिल है 
आग़ का मेल और पानी से ?

क्यूँ मेरा दिल धड़कने लगता है 
कैस ओ फ़रहाद की कहानी से । 

सीख ली बुलबुलों ने नगमागरी
ऐ " ज़िया " तेरी ख़ुशबयानी से ।
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