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Mehr Lal Soni Zia Fatehabadi
 
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* होश में करके बेख़बर होश में फिर न ल *
होश में करके बेख़बर होश में फिर न ला सके ।
ऐसे हुए वो परदापोश ख़्वाब में भी न आ सके ।

चाहिए मुझ को एक दिल और वो ऐसे ज़रफ का,
दर्द की सारी कायनात जिस में सिमट के आ सके ।

मेरी निगाह-ए आशना जलवागह-ए जमाल है,
ग़ैर की क्या मजाल है मुझ से नज़र मिला सके ।

या मेरी ज़िन्दगी को दे अपनी निगाह में अमाँ,
या मुझे इस तरह मिटा फिर न कोई मिटा सके ।

काश किसी का इल्तिफ़ात हो मेरे सोज़ की निजात
दिल में सुलग रही है आग़ कोई उसे बुझा सके ।
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