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Mirza Ghalib
 
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* ज़ुल्मतकदे में मेरे शब-ए-ग़म का जो *
ज़ुल्मतकदे में मेरे शब-ए-ग़म का जोश है 
इक शम्मा है दलील-ए-सहर सो ख़मोश है 

ना मुज़्दा-ए-विसाल न नज़्ज़ारा-ए-जमाल
मुद्दत हुई कि आश्ती-ए-चश्म-ओ-गोश है 

मै ने किया है हुस्न-ए-ख़ुदआर को बेहिजाब 
अए शौक़, हाँ, इजाज़त-ए-तस्लीम-ए-होश है 

गौहर को अ़क्द-ए-गर्दन-ए-ख़ूबां में देखना 
क्या औज पर सितारा-ए-गौहरफ़रोश है 

दीदार, वादा, हौसला, साक़ी, निगाह-ए-मस्त 
बज़्म-ए-ख़याल मैकदा-ए-बेख़रोश है 

अए ताज़ा वारिदन-ए-बिसात-ए-हवा-ए-दिल 
ज़िंहार अगर तुम्हें हवस-ए-न-ओ-नोश है 

देखो मुझे जो दीदा-ए-इबरत-निगाह हो 
मेरी सुनो जो गोश-ए-नसीहत-नियोश है 

साक़ी ब जल्वा दुश्मन-ए-ईमान-ओ-आगही 
मुतरिब ब नग़्मा रहज़न-ए-तम्कीन-ओ-होश है 

या शब को देखते थे कि हर गोशा-ए-बिसात 
दामान-ए-बाग़बाँ-ओ-कफ़-ए-गुलफ़रोश है 

लुत्फ़-ए-ख़ीराम-ए-साक़ी-ओ-ज़ौक़-ए-सदा-ए-चंग 
ये जन्नत-ए-निगाह वो फ़िर्दौस-ए-गोश है 

या सुबह दम जो देखिये आकर तो बज़्म में 
ना वह सुरूर-ओ-सोज़ न जोश-ओ-ख़रोश है 

दाग़-ए-फ़िराक़-ए-सोहबत-ए-शब की जली हुई 
इक शम्मा रह गई है सो वो भी ख़मोश है 

आते हैं ग़ैब से ये मज़ामी ख़याल में 
"ग़ालिब" सरीर-ए-ख़ामा नवा-ए-सरोश है
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