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Mirza Ghalib
 
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* इश्क़ मुझको नहीं, वहशत ही सही *
इश्क़ मुझको नहीं, वहशत ही सही 
मेरी वहशत, तेरी शोहरत ही सही 

क़तअ़ कीजे न तअ़ल्लुक़ हम से 
कुछ नहीं है, तो अ़दावत ही सही 

मेरे होने में है क्या रुस्वाई?
ऐ वो मजलिस नहीं ख़िल्वत ही सही 

हम भी दुश्मन तो नहीं हैं अपने
ग़ैर को तुझ से मुहब्बत ही सही 

अपनी हस्ती ही से हो, जो कुछ हो 
आगही गर नहीं ग़फ़लत ही सही 

उम्र हरचंद कि है बर्क़-ख़िराम
दिल के ख़ूँ करने की फ़ुर्सत ही सही 

हम कोई तर्क़-ए-वफ़ा करते हैं 
न सही इश्क़ मुसीबत ही सही 

कुछ तो दे, ऐ फ़लक-ए-नाइन्साफ़
आह-ओ-फ़रिय़ाद की रुख़सत ही सही 

हम भी तस्लीम की ख़ू डालेंगे 
बेनियाज़ी तेरी आदत ही सही 

यार से छेड़ चली जाये, "असद" 
गर नहीं वस्ल तो हसरत ही सही
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