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Mirza Ghalib
 
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* जिस ज़ख़्म की हो सकती हो तदबीर रफ़ *
जिस ज़ख़्म की हो सकती हो तदबीर रफ़ू की
लिख दीजियो, या रब उसे ! क़िस्मत में अ़दू की

अच्छा है सर-अनगुश्त-ए-हिनाई का तसव्वुर
दिल में नज़र आती तो है, इक बूंद लहू की

क्यों डरते हो उ़शशाक़ की बे-हौसलगी से
यां तो कोई सुनता नहीं फ़रियाद किसू की

दश्ने ने कभी मुंह न लगाया हो जिगर को
ख़ंज़र ने कभी बात न पूछी हो गुलू की

सद हैफ़ ! वह ना-काम, कि इक उ़मर से ग़ालिब
हसरत में रहे एक बुत-ए-अ़रबदा-जू की


गो ज़िंदगी-ए-ज़ाहिद-ए-बे-चारा अ़बस है
इतना है कि रहती तो है तदबीर वुज़ू की
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