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* जब भी माँ की कोख में होता है दूजी मा *
जब भी माँ की कोख में होता है दूजी माँ का खूँ
आदमीअत काँप उठती है लरज़ता है सुकूँ
आज जब देखा तो दिल के टुकड़े टुकड़े कर गए
ये अजन्मे जिस्म ख़ाक ओ खून में लिथड़े हुए
काँप उठता है जिगर इंसान के अंजाम पर
आदमीअत की हैं लाशें बेटियों के नाम पर
मारते हैं माओं को , बदकार हैं , शैतान हैं
कौन वो बदबख्त हैं , इन्सां हैं या हैवान हैं
देख कर ये हादसा, बेचैन हूँ , रंजूर हूँ
और फिर ये सोचने के वास्ते मजबूर हूँ
कोख में ही क़त्ल का ये हुक्म किस ने दे दिया
जो अभी जन्मी नहीं थी , जुर्म क्या उस ने किया
मर्द की खातिर सदा कुरबानियां देती रही
आदमी की माँ है वो , क्या जुर्म है उस का यही ?
क्यूँ उसे तुम क़त्ल करते हो , कोई आफत है वो ?
मामता की , प्यार की , इखलास की मूरत है वो
हर सितम सह कर भी अब तक करती आई है वफ़ा
जब से आई है ज़मीं पर क्या नहीं उस ने सहा
खिल न पाई जो कभी , है एक ये ऐसी कली
जब वो छोटी थी तो उस को भाई की जूठन मिली
उस को पैदा करने का एहसाँ अगर उस पर किया
इस के बदले ज़िन्दगी का हक भी उस से ले लिया
बिक गई कोठों पे, आतिश का निवाला बन गई
इज्ज़त ओ ग़ैरत, कभी लालच का लुकमा बन गई
ये अज़ल से जाने कितने दर्द सहती आई है
फिर भी बदकिस्मत, अभागन , बेहया कहलाई है
इतने दुःख दे कर भी तुम ने इक ख़ुशी उस को न दी
और अब तो तुम ने उस की ज़िन्दगी भी छीन ली
ऐ गुनह्गारान ए मादर , दुश्मन ए इंसानियत
ऐ इरम के कातिलो , ऐ पैकर ए शैतानियत
जिस को बेटी जान कर तुम क़त्ल यूँ करते रहे
ये नहीं सोचा , के जो बेटी है , वो इक माँ भी है ?
आदमी के वास्ते फिर माँ कहाँ से लाओगे
मार दोगे माओं को तो तुम कहाँ से आओगे
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