|
* कभी नैन तरसे, कभी नैन बरसे। *
------------ ग़ज़ल ------------
कभी नैन तरसे, कभी नैन बरसे।
मुहब्बत छुपाते ज़माने के डर से।
घटा ज़ुल्फ़, बिजली गिराती सी आँखें,
उन्हीं में उलझ के मिरे नैन बरसे।
वहाँ जो भी जाए, यकीं रख के जाए,
न लौटेगा ख़ाली कभी उसके दर से।
ज़मीं पर ही दोनों हैं जन्नत-जहन्नुम,
ये मानो, या सुन लो इधर से उधर से।
तुही ख़ैर रक्खे तभी रह सकेगी,
बुजुर्गों का साया उठा मेरे सर से।
बुज़ुर्गी के अब तो बड़े फ़ायदे हैं,
मिले छूट रेलों में औ' आयकर से।
'नया' तैरना अब सिखा देगा तुझको,
ये पानी जो ऊँचा हुआ अपने सर से।
--- वी. सी. राय 'नया'
***** |
|