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Yahya Khan
 
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* हमारे दरम्याँ जो फासला पड़ा हुआ हí *
ग़ज़ल
 
हमारे दरम्याँ जो फासला पड़ा हुआ है
निगाह ए क़ल्ब में जाला सा क्या पड़ा हुआ है
 
मेरा ही अक्स मुझे रास्तों में दिखने लगा
तह ए सुराब कोई आईना पड़ा हुआ है
 
उड़ा रहा था मेरी चश्म ए दूर बीं का मज़ाक़
चराग़ ए राह मेरे ज़ेर ए पा पड़ा हुआ है
 
मेरे ज़वाल का वाहिद सबब मैं खुद ही तो हूँ
मेरे गुमान में लेकिन खुदा पड़ा हुआ है
 
गलों में कागज़ी ताले यहाँ पड़े हुए हैं
घरों में ताक़ पे इक मोज्ज़ा पड़ा हुआ है
 
सफ़ेद तश्त में गर्दन मेरी राखी हुई है
अलम ब दस्त मेरा मुदद'आ पड़ा हुआ है
 
मुझे हनूज़ वफ़ा की उमीद है तुझ से
अगरचे नाम तेरा बेवफ़ा पड़ा हुआ है
 
यहया खान युसुफ्जई - पूना - भारत
 
(नोट : क़ल्ब - दिल , निगाह ए क़ल्ब - दिल की नज़र , अक्स - छवि , सुराब - मृगजल , तह ए सुराब - मृगजल के निचे, चश्म - आँख , दूरबीं - दूर तक देखने वाली , चराग़ - दिया , चराग़ ए राह - रस्ते का दिया , पा - पैर , ज़ेर - निचे, ज़ेर ए पा - पेरों के निचे , ज़वाल - पतन, सबब - वजह , वाहिद - एक ही , कागज़ी - कागज़ के , ताक़ - मेहराब , मोज्ज़ा - चमत्कार , हनूज़ - अब भी )
 
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