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Zaidi Jafar Raza
 
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* रात की ओस दरख्तों पे गिरी होगी ज़र *
रात की ओस दरख्तों पे गिरी होगी ज़रूर. 
ज़िन्दगी अपनी भी कुछ यूँ ही कटी होगी ज़रूर.

ज़िक्र आता है तो झुक जाती हैं आँखें उसकी, 
मुझसे मिलने की खलिश दिल में छुपी होगी ज़रूर,

सबके चेहरों पे उभर आये हैं दहशत के नुकूश,
शह्र में आज कोई बात हुई होगी ज़रूर.

इतना इठलाके ये पहले तो कभी चलती न थी,
राह में बादे-सबा उससे मिली होगी ज़रूर. 

कैसे खामोश रहे होंगे भला मेरे रकीब, 
उसकी महफ़िल में मेरी बात चली होगी ज़रूर. 

अपनी बेचैनियों को दिल में छुपा कर रखना,
वरना अहबाब जब आयेंगे, हँसी होगी ज़रूर.

ज़िन्दगी! आज तेरे हौसले पुर्खौफ़ हैं क्यों, 
दश्ते-इम्काँ में कहीं आग लगी होगी ज़रूर.
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