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Zaidi Jafar Raza
 
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* मैं तनहा हूँ , नहीं भी हूँ *
मैं तनहा हूँ , नहीं भी हूँ
के मेरा ज़हन खाली एक पल को भी नहीं रहता
न जाने किन खयालों के सफरनामे
हमेशा सामने रहते हैं जिनको पढता रहता हूँ.
समंदर के मनाज़िर,
शोरिशें,
मौजों की बर्क-आमेज़ तक़रीरें,
रुपहले, रूई जैसे नर्म
मजनूं बादलों के रक्स की थिरकन,
फजाओं से उभरती ताएरों की जानी-पहचानी,
मगर, बेलौस आवाजें
मैं सुनता हूँ
मुझे महसूस होता है
के मैं खामोश-लब, बे-ख्वाब आँखें, मुन्जमिद चेहरा
हथेली पर लिए
बज्मे-तरब में बेहिसो-बेजान बैठा हूँ.
अचानक सारी आवाजें बदल जाती हैं शोलों में
हरारत दौड़कर माहौल के शाने हिलाती है
मुझे भी छू के आहिस्ता से कुछ कहती है कानों में
मेरी बे-ख्वाब आंखों में उतर आतें हैं फिर से ख्वाब
होंठों पर हरारत के लबों का लम्स पाकर
मुनजमिद चेहरे में एक तहरीक सी होती है
ख़ुद को ज़िंदगी के खुश्नावा आहंग से लबरेज़ पाता हूँ
मैं तनहा हूँ, नहीं भी हूँ.
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