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Abdul Ahad Saz
 
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* दूर से शहरे-फ़िक्र सुहाना लगता है *

दूर से शहरे-फ़िक्र सुहाना लगता है

दाख़िल होते ही हरजाना लगता है

साँस की हर आमद लौटानी पड़ती है

जीना भी महसूल चुकाना लगता है

बीच नगर, दिन चढ़ते वहशत बढ़ती है

शाम तलक हर सू वीराना लगता है

उम्र, ज़माना, शहर, समंदर, घर, आकाश

ज़हन को इक झटका रोज़ाना लगता है

बे-मक़सद चलते रहना भी सहल नहीं

क़दम क़दम पर एक बहाना लगता है

क्या असलूब चुनें, किस ढब इज़हार करें

टीस नई है, दर्द पुराना लगता है

होंट के ख़म से दिल के पेच मिलाना ‘साज़’

कहते कहते बात ज़माना लगता है

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