donateplease
newsletter
newsletter
rishta online logo
rosemine
Bazme Adab
Google   Site  
Bookmark and Share 
design_poetry
Share on Facebook
 
Abdul Ahad Saz
 
Share to Aalmi Urdu Ghar
* दूर से शहरे-फ़िक्र सुहाना लगता है *

दूर से शहरे-फ़िक्र [1] सुहाना लगता है

दाख़िल होते ही हरजाना लगता है

साँस की हर आमद लौटानी पड़ती है

जीना भी महसूल [2] चुकाना लगता है

बीच नगर, दिन चढ़ते वहशत बढ़ती है

शाम तलक हर सू वीराना लगता है

उम्र, ज़माना, शहर, समंदर, घर, आकाश

ज़हन [3] को इक झटका रोज़ाना लगता है

बे-मक़सद
[4] चलते रहना भी सहल नहीं

क़दम क़दम पर एक बहाना लगता है

क्या असलूब
[5] चुनें, किस ढब इज़हार करें

टीस नई है, दर्द पुराना लगता है

होंट के ख़म
[6] से दिल के पेच मिलाना ‘साज़’

कहते कहते बात ज़माना लगता है



शब्दार्थ:

↑ ज्ञान का नगर

↑ टैक्स

↑ दिमाग़

↑ बिना लक्ष्य के

↑ अंदाज़

↑ मोड़

 
Comments


Login

You are Visitor Number : 350