दूर से शहरे-फ़िक्र [1] सुहाना लगता है
दाख़िल होते ही हरजाना लगता है
साँस की हर आमद लौटानी पड़ती है
जीना भी महसूल [2] चुकाना लगता है
बीच नगर, दिन चढ़ते वहशत बढ़ती है
शाम तलक हर सू वीराना लगता है
उम्र, ज़माना, शहर, समंदर, घर, आकाश
ज़हन [3] को इक झटका रोज़ाना लगता है
बे-मक़सद [4] चलते रहना भी सहल नहीं
क़दम क़दम पर एक बहाना लगता है
क्या असलूब [5] चुनें, किस ढब इज़हार करें
टीस नई है, दर्द पुराना लगता है
होंट के ख़म [6] से दिल के पेच मिलाना ‘साज़’
कहते कहते बात ज़माना लगता है
शब्दार्थ:
↑ ज्ञान का नगर
↑ टैक्स
↑ दिमाग़
↑ बिना लक्ष्य के
↑ अंदाज़
↑ मोड़