हो न रंगीन तबीयत भी किसी की या रब आदमी को यह मुसीबत में फँसा देती है निगहे-लुत्फ़ तेरी बादे-बहारी है मगर गुंचए-ख़ातिरे-आशिक़ को खिला देती है