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Akhtar Ansari
 
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* वो इत्तफ़ाक़ से रस्ते में मिल गया  *
वो इत्तफ़ाक़ से रस्ते में मिल गया था मुझे
मैं देखता था उसे और वो देखता था मुझे 

अगरचे उसकी नज़र में थी न आशनाई 
मैं जानता हूँ कि बरसों से जानता था मुझे 

तलाश कर न सका फिर मुझे वहाँ जाकर 
ग़लत समझ के जहाँ उसने खो दिया था मुझे 

बिखर चुका था अगर मैं, तो क्यों समेटा था
मैं पैरहन था शिकस्ता तो क्यों सिया था मुझे 

है मेरा हर्फ़-ए-तमन्ना, तेरी नज़र का क़ुसूर 
तेरी नज़र ने ही ये हौसला दिया था मुझे
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