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Akhtar ul Iman
 
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* आओ कि जश्न-ए-मर्ग-ए-मुहब्बत मनाएँ ह *
आओ कि जश्न-ए-मर्ग-ए-मुहब्बत मनाएँ हम 
आती नहीं कहीं से दिल-ए-ज़िन्दा की सदा 

सूने पड़े हैं कूचा-ओ-बाज़ार इश्क़ के 
है शम-ए-अंजुमन का नया हुस्न-ए-जाँ गुदाज़

शायद नहीं रहे वो पतंगों के वलवले
ताज़ा न रख सकेगी रिवायात-ए-दश्त-ओ-दर 

वो फ़ित्नासर गए जिन्हें काँटें अज़ीज़ थे 
अब कुछ नहीं तो नींद से आँखें जलाएँ हम 

आओ कि जश्न-ए-मर्ग-ए-मुहब्बत मनाएँ हम 
सोचा न था कि आएगा ये दिन भी फिर कभी 

इक बार हम मिले हैं ज़रा मुस्कुरा तो लें 
क्या जाने अब न उल्फ़त-ए-देरीना याद आए 

इस हुस्न-ए-इख़्तियार पे आँखें झुका तो लें 
बरसा लबों से फूल तेरी उम्र हो दराज़ 
संभले हुए तो हैं, पर ज़रा डगमगा तो लें । 
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