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Akhtar ul Iman
 
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* दबी हुई है मेरे लबों में कहीं पे वो &# *
दबी हुई है मेरे लबों में कहीं पे वो आह भी जो अब तक 
न शोला बन के भड़क सकी है न अश्क-ए-बेसूद बन के निकली 
घुटी हुई है नफ़स की हद में जला दिया जो जला सकी है 
न शमा बन कर पिघल सकी है न आज तक दूद बन के निकली 
दिया है बेशक मेरी नज़र को वो परतौ जो दर्द बख़्शे 
न मुझ पर ग़ालिब ही आ सकी है न मेरा मस्जूद बन के निकली 
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