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Akhtar ul Iman
 
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* तुम से बेरंगी-ए-हस्ती का गिला करना  *
तुम से बेरंगी-ए-हस्ती का गिला करना था 
दिल पे अंबार है ख़ूँगश्ता तमन्नाओं का 
आज टूटे हुए तारों का ख़याल आया है 
एक मेला है परेशान-सी उम्मीदों का 
चंद पज़मुर्दा बहारों का ख़याल आया है 
पाँव थक-थक के रह जाते हैं मायूसी में 
पुरमहन राहगुज़ारों का ख़याल आया है 
साक़ी-ओ-बादा नहीं जाम-ओ-लब-ए-जू भी नहीं 
तुम से कहना था कि अब आँख में आँसू भी नहीं 
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