* ये अपना मिलन जैसे इक शाम का मंज़र ह *
ये अपना मिलन जैसे इक शाम का मंज़र है
मैं डूबता सूरज हूं तू बहता समन्दर है
सोने का सनम था वो, सबने उसे पूजा है
उसने जिसे चाहा है वो रेत का पैकर है
जो दूर से चमके हैं वो रेत के ज़र्रे हैं
जो अस्ल में मोती है वो सीप के अन्दर है
दिल और भी लेता चल पहलू में जो मुमकिन हो
उस शोख के रस्ते में एक और सितमगर है
दो दोस्त मयस्सर हैं इस प्यार के रस्ते में
इक मील का पत्थर है, इक राह का पत्थर है
सब भूल गया आख़िर पैराक हुनर अपने
अब झील सी अंाखों में मरना ही मुक़द्दर है
अब कौन उठाएगा इस बोझ को किश्ती पर
किश्ती के मुसाफ़िर की अंाखों में समन्दर है
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