उठ खडा़ हो तो बगोला है, जो बैठे तो गु़बार। ख़ाक होकर भी वही शान है, दीवाने की॥ ‘आरज़ू’! ख़त्म हक़ीक़त पै हुआ दौरे-मजाज़। डाली काबे की बिना, आड़ से बुतख़ाने की॥ ****