भले दिन आये तो आज़ार बन गया आराम। क़फ़स के तिनके भी काम आ गए नशेमन के॥ मिटा के फिर तो बनाने पर अब नहीं काबू। वो सर झुकाए खड़े है, क़रीब मदफ़न के॥ ****