पलक झपकी कि मंज़र खत्म था बर्क़े-तजल्ली का। ज़ता सी न्यामतेदीद, उसका भी यूँ रायगाँ जाना॥ समझ ले शमा से ऐ हमनशीं! आदाबे-ग़मख्वारी। ज़बाँ कटवानेवाले का है, मन्सब राज़दाँ होना॥ ****