सरूरे-शब का नहीं, सुबह का ख़ुमार हूँ मैं। निकल चुकी है जो गुलशन से वो बहार हूँ मैं॥ करम पै तेरे नज़र की तो ढै गया वह गरूर। बढ़ा था नाज़ कि हद का गुनहगार हूँ मैं॥ ****