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Aziz Azad
 
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* कुछ इस तरह से साथ मेरे हमसफ़र चले *
कुछ इस तरह से साथ मेरे हमसफ़र चले
साये से जैसे जिस्म कोई बेख़बर चले

ख़ामोशियों का सर्द अँधेरा है इस कदर
यूँ अजनबी से यार न जाने किधर चले

इस दस्ते-बेकराँ में खटकती है बेरुख़ी
लाज़िम है इस घड़ी में लिपट कर बशर चले

इतना भी कम नहीं के शरीके-सफ़र रहे
जैसे भी मेरे साथ चले वो मगर चले

हम आ के एक मोड़ पे रुके तो ये लगा
या रब ज़रा-सा और ये दौरे-सफ़र चले

हम तो ‘अज़ीज़’ डूबते सूरज के साथ-साथ
कितनी अधूरी हसरतें लेके यूँ घर चले
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