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Jawaid Hayat
 
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* ज़ीनत ए बज़्म भी कुछ और निगाराँ हो *
ज़ीनत ए बज़्म भी कुछ और निगाराँ होगी
ज़ुल्फ़े पुर-ख़म जो तेरी खुल के परेशाँ होगी
तेरी तस्वीर सर ए चाक ए गिरेबाँ होगी
शबे हिजराँ में मेरे दर्द का दरमाँ होगी
तू भी इक दीप मेरे नाम का रौशन करना
जब तेरे घर में अदा रस्मे चराग़ाँ होगी
मैंने कुछ ख़ुआब तो देखे ही नहीं इस डर से
रुख़ से वहशत जो सर ए सैहर नुमायाँ होगी
हर तरफ़ चारा-गरी हद से बढ़ी जाती है
दिल उजढ़ने की घड़ी और भी आसाँ होगी
अब के दिलबर तेरे मक़तल में कशाकश देखी
सुर्ख़िऐ ख़ून ए शहीदाँ भी पशेमाँ होगी
तब ही सोचेंगे जुदा होके जिऐंगे कैसे
दिल की फ़ुर्सत जो ज़रा हम पे महरबाँ होगी
यह क़दम और भी शिद्दत से बढ़ेंगे आगे
राह जब कोई मेरे सामने वीराँ होगी
तूने अब तक तो नहीं बाँटी ज़िया अपनी हया॔त
क्या ख़बर किसके लिये कल ये तेरी जाँ होगी
 
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